नमस्कार दोस्तों कैसे हैं आप सभी? मैं आशा करता हूँ की आप सभी अच्छे ही होंगे। आज हम आप को मीराबाई का जीवन परिचय (Mirabai Ka Jivan Parichay) के बारे में विस्तार से बतायेंगे।
मीराबाई, जिन्होंने कृष्ण भक्ति में लीन होकर जहर का प्याला तक पी लिया परंतु कभी कृष्ण की भक्ति नहीं छोड़ी। अपने बचपन से अंत समय तक उन्होंने कृष्ण की पूजा की तथा अंत में उन्ही में समा गई।
जब सांसारिक दुखों से उनका मन भर गया तथा सहनशक्ति खत्म हो गई तब उन्होंने अपना सर्वस्व गिरधर को सौंप दिया और भगवत भजन में सारी लोग लज्जा छोड़कर भक्ति में नाचने लगी एवं अंत में द्वारका में गिरधर की मूर्ति में समा गई। तो चलिए कृष्ण भक्त मीरा की जीवनी के बारे में विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं।
मीराबाई का जीवन परिचय (Mirabai Ka Jivan Parichay)
नाम | मीराबाई |
जन्म तिथि | 1498 ई, गांव कुडकी, जिला पाली |
पिता | रतन सिंह |
माता | वीर कुमारी |
पति का नाम | महाराणा भोजराज |
मृत्यु | 1557, द्वारका |
लोकप्रिय रचना | नरसी जी का मायरा |
जयंती | शरद पूर्णिमा |
मीराबाई का जन्म और बचपन
मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई० के लगभग राजस्थान में मेड़ता के पास चौकड़ी ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम रत्नसिंह था तथा वे जोधपुर-संस्थापक राव जोधा की प्रपौत्री थीं। बचपन में ही उनकी माता का निधन हो गया था; अत: वे अपने पितामह राव दूदा जी के पास रहती थीं। प्रारम्भिक शिक्षा भी उन्होंने अपने दादाजी के पास रहकर ही प्राप्त की थी। राव दा जी बड़े ही धार्मिक एवं उदार प्रवृत्ति के थे जिनका प्रभाव मीरा के जीवन पर पूर्णरूपेण पड़ा था।
बचपन से ही मीराबाई कृष्ण की आराधिका थीं। उनका विवाह उदयपुर के राणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। विवाह के कुछ ही समय बाद उनके पति की मृत्यु हो गयी। मीरा की मृत्यु द्वारका में सन् 1546 ई० के आसपास मानी जाती है।
मीराबाई का विवाह तथा वैधव्यता
उन्होंने एक बार उनकी माता से बातों-बातों में यह जाना कि उनका दूल्हा गिरधर ही है, माता ने तो परिहास में कहा किंतु इन्होंने इसी को सत्य मान लिया और गिरधर की ओर अधिक झुकाव ले लिया। वे अपना सर्वस्व उन्हीं को समझ बैठी और गिरधर को अपना दूल्हा समझ अटूट प्रेम करने लगी। वे तो अपना सर्वस्व गिरधर को समझ उन्हीं से अटूट प्रेम करती थी परंतु सांसारिक नियमों के अनुसार उनके पिता ने उनका विवाह करवाया।
मेड़ता के प्रसिद्ध महाराणा सांगा के बड़े बेटे कुंवर भोजराज के संग विक्रम संवत् 1573 को उनका विवाह हुआ। (मीराबाई का विवाह) विवाह के बाद वे मेड़ता में अपना सुखी जीवन जीने लगी लेकिन यह खुशियां ज्यादा वक्त तक नहीं टिक पाई कुछ समय बाद ही उनके पति भोजराज का देहांत हो गया और वे विधवा हो गई।
अपने पति की मृत्यु के बाद उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाला और गिरधर की उपासना कर अपना समय बिताने लगी। कुछ समय बाद ही उन पर दुखों का पहाड़ टूट गया उनके श्वसुर तथा पिता का भी निधन हो गया इस दुख ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया। अब वे ज्यादा समय कृष्ण भक्ति तथा भजन में गुजारने लगी , वे भगवत भजन तथा सत्संग में सारी लोक लज्जा को त्याग कर गिरधर प्रेमवश में भजन गाने तथा नाचने लगी।
मीराबाई की कृष्ण भक्ति
मीरा की भक्ति का मूल आधार श्रद्धा और भक्ति थी. मीरा ने अनेक संतो के साथ सत्संग एवं विचार विमर्श किये. लेकिन किसी एक धारा का अनुगमन नही किया. मीरा सगुण उपासक थी और वह इस पद्दति की श्रेष्ट प्रतिनिधि भी थी.
उनकी भक्ति की शुरुआत कृष्ण के दर्शन करने की इच्छा से होती है, वह कहती है कि ”मै विरहणी बैठी जांगू दुखन लागे नैण” कृष्ण भक्ति की प्राप्ति के बाद वह कह उठती है, पायो जी मैनें रामरतन धन पायो”
“मीराबाई” का समय सामंतीकाल का चर्मोत्कर्ष समय था. ऐसें समय में रूढ़ियाँ, नारी स्वतंत्रता एवं जाति भेद के विरुद्ध मीराबाई ने बहुत साहस के साथ आवाज उठाइ. मीरा ज्ञान पक्ष के स्थान पर सहज भक्ति को अधिक महत्व देती थी.
वह लोकप्रिय भक्त थी. सामान्यजन मीराबाई से प्रभावित थे. आज भी मीरा के पदों को लोक भजनों के रूप में गाया जाता है.
मीरा पर हुए अत्याचार
मीरा गिरधर की भक्ति में लीन होकर भजन गाने लगी और प्रेम में वशीभूत होकर सारी लोग लज्जा त्याग नाचने लगी। उनका मंदिरों में यू नाचना मेवाड़ के ऊंचे राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध जान पडने लगा।
इस बात से परेशान होकर महाराणा सांगा के दूसरे बेटे रतन सिंह और छोटे भाई विक्रमजीत सिंह ने मीरा पर कई प्रकार के अत्याचार करना शुरू कर दिया, (मीरा पर हुए अत्याचार) सिर्फ़ अत्याचार ही नहीं उन्होंने उन्हें समाप्त कर मौत के घाट उतारने तक के भी कई प्रयास किए।
उन्होंने उन्हें सांपों से डसवाने का प्रयास भी किया परंतु गिरधर के आशीर्वाद और चमत्कार से सांप शालिग्राम बन गए । (मीरा ने विष का प्याला पी लिया) जब राणा ने उन्हें एक बार विष का प्याला पीने को दिया तब उन्होंने गिरधर का भजन करते हुए वह प्याला पी लिया और यह विष का प्याला गिरधर की कृपा से अमृत में परिवर्तित हो गया।
मीराबाई की रचनाएं
नरसी जी रो मायरों, गीत गीत गोविन्द की टीका, रासगोविंद, मीराबाई की मलार, राग विहाग. सांसारिक जीवन की इस विषम परिस्थतियों में मीरा सन्यास की ओर झुकी. इन्होने अपने इष्टदेव कृष्ण को पति के रूप में माना. इनका मानना था कि परमात्मा ज्ञान अथवा भोग से नही मिलता बल्कि भक्ति प्रेम से मिलता हैं.
मीरा के ये विचार सूफियों के समान हैं. इसी कारण मीराबाई की तुलना प्रसिद्ध सूफी महिला रुबिया से की जाती हैं, जिन्होंने ईश्वर को पति के रूप में माना.
मीरा ने अनेक कृष्ण भक्ति गीतों की रचना की, जो मुख्यत ब्रजभाषा तथा आंशिक रूप से राजस्थानी भाषा में हैं. इन्होने जयदेव के गीतगोविन्द पर टीका लिखी, इनकी मृत्यु द्वारिका में हुई.
मीराबाई का अन्तिम समय
नाना प्रकार के अत्याचारों से परेशान होकर वे मेड़ता आ गई। मेड़ता में मीरा के चाचा वीरमदेवजी राज करते थे तो वे प्रोत्साहित होकर तीर्थ यात्रा को निकल पड़ी। तीर्थयात्रा में वे गिरधर के कई मंदिरों से होते हुए वृंदावन गई फिर वहां से द्वारिका पहुंची। (मीराबाई की मृत्यु) द्वारिका में रणछोड़ भगवान की भक्ति में लीन रहने लगी और अपना समय वही गुजारने लगी।
सन् 1546 (विक्रम संवत 1603) में द्वारिका में रणछोड़ की मूर्ति में समा गई और दुनिया से नाता तोड़ गई। दुनिया से तो उन्होंने अपने आप को शुरू से ही अलग रख के अपना सर्वस्व गिरधर को सौंप दिया लेकिन उन्होंने अपने प्राण 1546 के आसपास त्याग दिए और अपने शरीर को त्याग रनछोड़ में समा गई।
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मीराबाई का जीवन परिचय – FAQs
मीरा का जन्म कब हुआ?
इनका जन्म 1498 ई. (विक्रम संवत् 1555) के आसपास मेड़ता में माना जाता है।
मीराबाई के बचपन का नाम क्या था?
मीराबाई के बचपन का नाम पेमल था।
मीरा के पिता कौन थे?
मीरा के पिता रतनसिंह थे।
मीरा के पति कोन थे?
कुंवर भोजराज मीरा के पति थे।
मीराबाई कौनसे काल की कवित्री थी?
मीराबाई भक्तिकाल की कवित्री थी।
अंतिम शब्द
तो दोस्तों आज हमने मीराबाई का जीवन परिचय (Mirabai Ka Jivan Parichay) के बारे में विस्तार से जाना हैं और मैं आशा करता हु की आप को यह पोस्ट पसंद आया होगा और आप के लिए हेल्पफुल भी होगा।
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